भूखी नंगी दौड़ती,
जिंदगी में क्यों जिन्दा है आदमी?
पेट को दोनों हांथों से मलता
थर थर कांपते पैर
धुप में बेजान हो चुके बाल,
होठ सूखे,प्यास से लालायित
अब कैसी बदतर परिवेश
को ताकता आदमी?
हर पल मुख मलिन
बस उहापोह,
कुछ न है तो कुछ पाने की चाह
ज्यों कुछ है, कुछ और पाने के जुगत,
ऐसा क्या पैबस्त है इसमें?
इसी तड़प में बेसब्री में
क्यों होता जा रहा बदबख्त आदमी ?
सिर्फ सांस ही काफी नहीं जिंदगी में
उत्कंठा निर्लाज्ज्पन, पेट भरने की कवायद
यह भी हैं जरूरी तत्वा है,
यह सिखलाता दौड़ता जाता आदमी! !!सिसोदिया!!