लोकपाल के ताबूत में एक और दरार

हिन्दी कोना - Friday, August 26, 2011 7:55:25 AM



परिस्थितियों के दबाव के बावजूद सरकार देश में स्वतंत्र भ्रष्टाचार विरोधी संस्था का गठन करने में भयभीत क्यों दिखाई पड़ रही है? वह क्यों सोचती है कि ऐसा कोई संगठन समानांतर सरकार का स्वरूप धारण कर लेगा?

ऐसा लगता है कि देश ऐसे लोगों से भर गया है जो न केवल दब्बू हैं और खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं, बल्कि उनमें दूसरों के प्रति विश्वास की भी भारी कमी है। प्रशासन अपने जन सेवा के कर्तव्यों को सुधारवादी रवैये के साथ पूरा करने के बजाय पूरी तरह कारोबारी हो गया है।

इसका प्रमुख कारण जीवन के हर क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार है। इसे सहन करके या इसे बढ़ावा देकर किसी न किसी रूप में हम सब इसके लिए जिम्मेदार हैं।

सभी स्तरों पर भ्रष्टाचार को रोकने एवं उसे दंडित करने के लिए देश को इस समय एक व्यापक एवं कारगर सिस्टम की दरकार है। जनप्रतिनिधियों एवं मतदाता के बीच की बढ़ती खाई सोचनीय है। लेकिन जैसे ही चुनाव नजदीक आते हैं, वोट के भिखारी उसी सिविल सोसायटी के पास हाथ जोड़े दुबारा समर्थन मांगने पहुंच जाते हैं जिसे चुने जाने के बाद ये कहना शुरू कर देते हैं कि सिविल सोसायटी को उनसे कुछ पूछने का अधिकार ही क्या है? ये सिविल सोसायटी वाले होते कौन हैं?

मतदाता अब बदल रहे हैं। मीडिया और प्रौद्योगिकी के प्रति हमें शुक्रगुजार होना चाहिए कि वोटर अब अधिक जागरूक है। लोग अब उन तकलीफों का अंत चाहते हैं जो लंबे समय से उन्हें परेशान किए हुए हैं और उनके सपनों के पूरा होने में बाधक हैं।

अब वे अलग- थलग रहने के बजाय चाहते हैं कि उनकी बातें सुनी जाएं। समाज और शासन के मध्य विश्वास की भारी कमी है। लोग लाचार होकर अपने प्रतिनिधियों को भ्रष्टाचार में लिप्त देखते रहते हैं और उन्हीं की कीमत पर वे दुबारा चुन कर आ जाते हैं। किसी कैंडिडेट को रिजेक्ट करने का अधिकार न होने के कारण वोटर शैतान और समुद्र में से किसी एक को चुनने को मजबूर है।

लोगों ने अन्ना हजारे के नेतृत्व में एक स्वतंत्र भ्रष्टाचार विरोधी प्राधिकरण के गठन के लिए इसलिए आंदोलन किया कि राष्ट्रीय संसाधनों के निर्लज्ज दोहन वाले एक के बाद एक घोटाले सामने आए और सरकार ने उनके खिलाफ कोई कठोर कार्रवाई नहीं की। चाहे इसे मानवीय इच्छा शक्ति की कमी मानें या ढांचागत अभाव, सरकारी मशीनरी हर मामले में विफल साबित हुई है।

बाहरी और भीतरी दबावों के बाद सरकार 42 साल पुराने 'लंबित' लोकपाल बिल की झाड़पोंछ करने को तैयार हुई। बड़ी मजबूरी में सरकार एक कमजोर लोकपाल विधेयक के मसौदे के साथ सामने आई। यह भी उसने तब किया जब सिविल सोसायटी हस्तक्षेप करते हुए भ्रष्टाचार की मौजूदा चुनौतियों से निपटने के लिए एक व्यापक और कारगर भ्रष्टाचार विरोधी ड्राफ्ट के साथ आगे आई। आगे की कहानी लोगों को मालूम है।

अन्ना हजारे की टीम के पांच सदस्यों और पांच सरकारी सदस्यों की बैठकों के बाद दो परस्पर विरोधी दृष्टिकोण सामने आए। सरकारी मसौदा इस देश के लोगों के साथ एक छलावा है। यह भ्रामक है और मुद्दों को उलझाने वाला है। जरा गौर फरमाएं तो इस तथ्य की पुष्टि इन प्रमुख मतभेदों से हो जाती है।

चयन समिति: सिविल सोसायटी द्वारा प्रस्तावित बिल में दो चुने हुए राजनीतिज्ञ, चार सेवारत न्यायाधीश एवं दो स्वतंत्र संवैधानिक प्राधिकरणों को शामिल करने पर बल दिया गया है। दूसरी ओर मंत्रियों की ओर से पेश किए गए प्रस्ताव में छह चुने हुए राजनेता (जिनमें से पांच सत्तारूढ़ दल और एक विपक्ष से), दो सेवारत जज और दो सरकारी अधिकारी।

यह पहला बड़ा अंतर है। इस प्रकार एक ओर 'सत्ता में बैठी सरकार' के प्रभुत्व वाला पैनल है और दूसरी ओर जन लोकपाल बिल में प्रस्तावित संतुलित पैनल है।

दूसरा प्रमुख मतभेद पड़ताल समिति को लेकर है। इस समिति पर देश में उपलब्ध प्रतिभावान लोगों को शामिल करते हुए पारदर्शी तरीके से देशव्यापी पड़ताल एवं समन्वय की जिम्मेदारी होगी। सिविल सोसायटी ने दस सदस्यीय समिति का प्रस्ताव किया जिसमें पांच भूतपूर्व सदस्य उच्च न्यायपालिका से, अवकाश प्राप्त नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक एवं मुख्य चुनाव आयुक्त एवं पांच सदस्य सिविल सोसायटी से लिए जाएंगे।

इससे देश के गणमान्य लोगों भ्रष्टाचार से निपटने में अपनी भूमिका निभाने का अवसर मिलेगा। सरकारी प्रस्ताव में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। वह कुल मिलाकर सरकारी संरक्षण का मोहताज है।

सरकारी बिल में तीसरा एवं गंभीर मतभेद पूछताछ एवं जांच के बाद सभी स्तरों पर अभियुक्त की 'इच्छा' एवं 'व्यक्तिगत सुनवाई' के प्रावधान को लेकर है। इससे मुकदमेबाजी और विलंब का रास्ता खुलेगा। उदाहरण के तौर पर: पूछताछ > लोकपाल से शिकायत > अभियुक्त की सुनवाई > जांच और अंतिम चार्जशीट से पूर्व एक और सुनवाई। यहां तक कि किसी व्यक्ति के अप्रत्यक्ष मामले में भी यदि उसकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचती हो तो उसे भी समान अवसर दिया जाना चाहिए।

सिविल सोसायटी के ड्राफ्ट बिल में प्रारंभिक जांच के बाद अभियुक्त को कानून के मुताबिक पूछताछ एवं जांच के लिए संबद्ध कर दिया जाएगा, उसके बचाव को साझा करने के लिए कोई पूर्व सुनवाई नहीं की जाएगी। उसे कानून के अनुसार अपना बचाव अदालत में करना होगा।

इसके अलावा दोनों मसौदों में इस बात को लेकर भी भारी अंतर है कि सरकारी मसौदे में नौकरशाही के संयुक्त सचिव स्तर से नीचे के तबकों को शामिल नहीं किया गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि आम आदमी अपने रोजमर्रा के कामों के निपटारे के लिए जिन अधिकारियों से रूबरू होता है, वह पूरी तरह उनके रहमोकरम पर निर्भर होगा।

सरकारी बिल में सिटीजन चार्टर के प्रावधान में समय पर काम न करने वाले अधिकारियों को दंडित करने का कोई उल्लेख नहीं है जबकि सिविल सोसायटी के मसौदे में इसकी व्यवस्था की गई है। इस खामी से यह संदेश जाता है कि भ्रष्टाचार केवल कॉर्पोरेट है और घूस बहुत 'मामूली' चीज है जिसके साथ आम आदमी को जीना ही है।

गंभीर चिंता का एक विषय यह भी है कि सरकारी मसौदे में लोकपाल एक अन्य एकाकी संस्था है। न तो उसे केंद्रीय सतर्कता आयोग दिया गया है और न ही सीबीआई की भ्रष्टाचार निरोधक शाखा उसके सुपुर्द की गई है, जबकि लोकपाल का काम जांच करना ही है।

लोकपाल को किसी लंबित जांच के मामले से खास तौर से दूर रखा गया है। अत: भ्रष्टाचार के वे सभी पुराने मामले, यदि उनकी जांच हो रही हो तो वे लोकपाल के अधिकार क्षेत्र से दूर रहेंगे।

यदि इस किस्म का लोकपाल आता है तो वह कानून लागू करने वाली मशीनरी की एक बेकार तीली के अलावा कुछ नहीं होगा और वह मौजूदा खामियों को बढ़ाने वाला ही साबित होगा। वह भ्रष्टाचार निरोधक तंत्र को मजबूत करने के बजाय उसे और पंगु बनाएगा। इसके अलावा, इस बात का निर्णय कौन करेगा कि कौन सा मुद्दा किसे सौंपा जाए? प्रधानमंत्री जी, क्या समाधान के बजाय संघर्ष करना ही हमारी नियति है?
 
स्रोत- http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/galtikiski/

 

 

 



2024 DelhiHelp

Comments

11:23AM 3/9/11 Parmod Mehta chor chokidaar ki hisedari khatam hone ka waqt aa gia hai
5:21PM 24/7/11 diwakar prasad jan lok pal pass hona jaroori hai
10:31AM 8/7/11 ankit sharma Lokkpal Bill must be accepteda as per Civil Society draft bill govt. bill is jokepal bill.
9:13PM 4/7/11 R.S. Rawat Lokkpal Bill must be accepteda as per Civil Society draft bill, not as per govt. draft.


1